हनुमान चालीसा, गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा लिखित एक पवित्र भक्ति रचना है, जो भगवान हनुमान की महिमा का गुणगान करती है। यह हर घर में गाई और पढ़ी जाती है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि तुलसी पीठाधीश्वर जगद्गुरु रामभद्राचार्य जी ने इसमें कुछ गलतियाँ बताई हैं? उनके अनुसार, समय के साथ छपाई और परंपरा में कुछ शब्द बदल गए, जो मूल अर्थ को प्रभावित करते हैं। उन्होंने इसे शास्त्रों के आधार पर ठीक करने का प्रयास किया है। आइए, उनके दृष्टिकोण को समझें और संशोधित हनुमान चालीसा को देखें।
जगद्गुरु रामभद्राचार्य जी एक महान संत, विद्वान और तुलसीदास के रचनाओं के विशेषज्ञ हैं। वे संस्कृत, हिंदी और कई भाषाओं के जानकार हैं। दो महीने की उम्र में अपनी आँखें खोने के बावजूद, उन्होंने शास्त्रों का गहरा अध्ययन किया और तुलसी पीठ की स्थापना की। वे मानते हैं कि हनुमान चालीसा में कुछ शब्दों का गलत प्रयोग हुआ है, जिसे ठीक करना जरूरी है।
रामभद्राचार्य जी ने चार चौपाइयों में बदलाव सुझाए हैं। उनका कहना है कि ये बदलाव शास्त्रों और तुलसीदास जी के मूल विचारों के आधार पर हैं। ये हैं वो चार बदलाव:
यहाँ संशोधित हनुमान चालीसा दी जा रही है, जिसमें चारों बदलाव शामिल हैं। बाकी पंक्तियाँ वही हैं जो मूल में हैं।
दोहा
श्रीगुरु चरन सरोज रज, निज मनु मुकुरु सुधारि। बरनऊँ रघुबर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि॥
बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवनकुमार। बल बुद्धि बिद्या देहु मोहिं, हरहु कलेस बिकार॥
चौपाई
जय हनुमान ज्ञान गुन सागर। जय कपीस तिहुँ लोक उजागर॥
रामदूत अतुलित बल धामा। अंजनि पुत्र पवनसुत नामा॥
महाबीर बिक्रम बजरंगी। कुमति निवार सुमति के संगी॥
कंचन बरन बिराज सुबेसा। कानन कुंडल कुंचित केसा॥
हाथ बज्र औ ध्वजा बिराजै। काँधे मूँज जनेऊ साजै॥
शंकर स्वयं केसरी नंदन। तेज प्रताप महा जग बंदन॥
बिद्यावान गुनी अति चातुर। राम काज करिबे को आतुर॥
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया। राम लखन सीता मन बसिया॥
सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा। बिकट रूप धरि लंक जरावा॥
भीम रूप धरि असुर संहारे। रामचंद्र के काज संवारे॥
लाय सजीवन लखन जियाये। श्रीरघुबीर हरषि उर लाये॥
रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई। तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई॥
सहस बदन तुम्हरो जस गावैं। अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं॥
सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा। नारद सारद सहित अहीसा॥
जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते। कबि कोबिद कहि सके कहाँ ते॥
तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा। राम मिलाय राज पद दीन्हा॥
तुम्हरो मंत्र बिभीषन माना। लंकेस्वर भए सब जग जाना॥
जुग सहस्र जोजन पर भानू। लील्यो ताहि मधुर फल जानू॥
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं। जलधि लाँघि गये अचरज नाहीं॥
दुर्गम काज जगत के जेते। सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते॥
राम दुआरे तुम रखवारे। होत न आज्ञा बिनु पैसारे॥
सब पर राम राज फिर ताजा। तिन के काज सकल तुम साजा॥
और मनोरथ जो कोई लावै। सोइ अमित जीवन फल पावै॥
चारों जुग परताप तुम्हारा। है परसिद्ध जगत उजियारा॥
साधु संत के तुम रखवारे। असुर निकंदन राम दुलारे॥
अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता। अस बर दीन जानकी माता॥
राम रसायन तुम्हरे पासा। सादर रहो रघुपति के दासा॥
तुम्हरे भजन राम को पावै। जनम जनम के दुख बिसरावै॥
अंत काल रघुबर पुर जाई। जहाँ जन्म हरिभक्त कहाई॥
और देवता चित्त न करई। हनुमत सेइ सर्व सुख करई॥
संकट कटै मिटै सब पीरा। जो सुमिरै हनुमत बलबीरा॥
जय जय जय हनुमान गोसाईं। कृपा करहु गुरुदेव की नाईं॥
दोहा
पवन तनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप। राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप॥
रामभद्राचार्य जी के संशोधन शास्त्रों और तुलसीदास जी की अन्य रचनाओं पर आधारित हैं। उदाहरण के लिए:
हालांकि, कुछ लोग मानते हैं कि मूल शब्द "शंकर सुवन" भी सही हैं, क्योंकि "सुवन" का अर्थ "अंश" हो सकता है। फिर भी, रामभद्राचार्य जी का तर्क शास्त्रीय और गहरा है।
जगद्गुरु रामभद्राचार्य जी का यह संशोधन हनुमान चालीसा को और शुद्ध करने की कोशिश है। यह हमें सिखाता है कि भक्ति के साथ-साथ शास्त्रों का ज्ञान भी जरूरी है। आप चाहें तो मूल चालीसा पढ़ें या संशोधित—दोनों में हनुमान जी की महिमा और भक्ति का भाव वही रहता है। महत्व इस बात का है कि हम इसे श्रद्धा से गाएँ और अपने जीवन में हनुमान जी के गुण अपनाएँ।
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